Bhagwat Geeta 16 Adhyay

 Bhagwat Geeta 16 Aadhyay

भावार्थ : मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण (अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम 'सत्यभाषण' है), अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात्‌ चित्त। 

श्री नारायण जी बोले - हे लक्ष्मी! सौरठ देश है , जिसके राजा का नाम खड़गबाहु था| बड़ा धर्मात्मा था।  उसके हाथियों में एक हाथी बड़ा मस्त था, तिसकी धूम मची रहे महावतों को पास न आने देवे, जो महावत उस पर चढ़े , उसको मार डाले। हाथी के पांव में जंजीर बांध रहे, जिसके खेद से राजा ने और देश से महावत बुला कर कहा , कोई ऐसा होय जो इस हाथी को पकड़े।  मैं  बहुत धन दूंगा । हे लक्ष्मी ! उस हाथी को किसी ने नहीं पकड़ा / एक दिन हाथी नगर में चला गया। सामने से एक साधु चला आया।  लोगों ने उस साधु से कहा - हे संतजी! यह हाथी आपको मार डालेगा।  संत ने कहा,देखो तुम श्री नारायण जी की कैसी शक्ति है| हाथी की क्या शक्ति है, जो मुझको मारे मेरे नजदीक नहीं आ सकता| साधु ने नेत्र प्रसार कर देखा, हाथी ने सूंड के साथ साधु की चरण वंदना की और खड़ा रहा| तब साधु ने कहा, हे गजेंद्र! मैं तुझे जानता हूँ, पिछले जन्म में तू पापी था, मैं तेरा उद्धार करूँगा।  चिंता मत कर।  हाथी बारम्बार चरण छूता माथा  नवाता था, लोगों ने देख कर राजा  खबर की राजा भी  वहां आया, देखा  तो हाथी साधु के आगे खड़ा है| तब साधु ने कहा- अरे गजेंद्र! तू आगे आ।  हाथी ने आगे हो चरण वंदना की।  उस संत गीता पाठी ने कमण्डल से जल लेकर मुख से कहा - गीता के सोलहवें अध्याय का फल इस हाथी को दिया।  इतना कह कर जल छिड़कने से हाथी की देह छोड़ देवदेहि पाई। विमान पर चढ़ बैकुण्ड को गया| राजा ने संत को दंडवत प्रणाम किया और कहा ,आपने कौन सा मंत्र कहा , जिससे यह अधम दुखदायक को सदगति प्राप्त हुई| संत जी ने कहा, मैंने गीता के सोलहवें अध्याय का फल दिया है। नित्य ही मैं पाठ करता हूँ। राजा ने पूछा , हाथी पिछले जन्म कौन था, साधु ने कहा, हे राजन! यह पिछले जन्म एक अतीत बालक था।  गुरु ने विद्या दी। बड़ा पंडित बनाया, वह अतीत तीर्थ यात्रा को गया।  पीछे उसकी शोभा बहुत हुई। अच्छे -अच्छे संत्सगी उसके दर्शन को आते।  बारह वर्ष पीछे गुरूजी आय वह अति नम्र थे| यह बड़े समाज में बैठा था, मन में सोचा।  अब इनके आदर के लिए उठता हूँ , तो मेरी शोभा घटेगी। यह सोचकर नेत्र बंदकर चुप हो गया। गुरूजी ने देखा , मुझे देखकर इसने नेत्र बंद किया है| ऐसा देख कर श्राप दिया कहा, रे मंदमत! तू अँधा हुआ है, मुझे देखकर शिश भी नहीं नवाया और न उठ कर दंडवत किया।  तूने अपनी प्रभु का अभिमान किया है, सो हाथी  का जन्म पावेगा | यह सुनकर बोला - हे संतजी! आपका वचन सत्य होगा। कहो मेरा उद्धार कब होगा। गुरूजी को दया आई , और कहा जो गीता जी के सोलहवें अध्याय का फल संकल्प तुझे देगा , तब तेरा उद्धार होवेगा। यह सुनकर राजा ने भी पाठ सीखा और अपने पुत्र को राज्य दे कर आप तप करने लगा वन  जाकर सोलहवें अध्याय का पाठ करने लगा| 



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