Durga stuti 1 Adhayay,
Durga stuti 1 Adhayay
काव्य विशारद श्री चमन लाल जी भारद्वाज "चमन" अमृतसरी
पहला आधाय
दोहा:- वन्दे गौरी गणपति शंकर और हनुमान ।
राम नाम प्रभाव से है सब का कल्याण ।
गुरुदेव के चरणों की रज मस्तक पे लगाऊ ।
शारदा माता की कृपा लेखनी का वर पाऊ ।
नमो नारायण दास जी विप्रन कुल श्रृंगार ।
पूज्य पिता की कृपा से उपजे शुद्ध विचार ।
वन्दु संत समाज को वंदु भगतन भेख ।
जिनकी संगत से हुए उलटे सीधे लेख ।
आदि शक्ति की वंदना करके शीश नवाऊ ।
सप्तशती के पाठ की भाषा सरल बनाऊ ।
क्षमा करे विद्वान सब जान मुझे अनजान ।
चरणों की रज चाहता बालक 'संजय' 'चमन' नादान ।
घर घर दुर्गा पाठ का हो जाए प्रचार ।
आदि शक्ति की भक्ति से होगा बेडा पार ।
कलयुग कपट कियो निज डेरा, कर्मो के वश कष्ट घनेरा ।
चिंता अगन में निस दिन जरही ।
प्रभु का सिमरन कबहू ना करही ।
यह स्तुति लिखी तिनके कारण ।
दुःख नाशक और कष्ट निवारण ।
मारकंडे ऋषि करे बखाना ।
संत सुनाई लावे निज ध्यान ।
स्वोर्चित नामक मन्वन्तर में ।
सुरथ नामी राजा जग भर में ।
राज करत जब पड़ी लड़ाई, युद्ध मे मरी सभी कटकाई ।
राजा प्राण लिए तब भागा , राज कोष परिवार त्यागा ।
सचिवन बांटेयो सभी खजाना, राजन यह मर्म यह बन मे जाना ।
सुनी खबर अति भओ उदासा , राजपाठ से हुआ निराशा ।
भटकत आयो इकबन माहि , मेधा मुनि के आश्रम जाहि ।
मेधा मुनि का आश्रम था कल्याण निवास ।
रहने लगा सुरत वह बन संतन का दस ।
इक दिन आया राजा को अपने राज्य का ध्यान ।
चुपके आश्रम से निकला पह्चा बन मे आन ।
मन में शोक अति पूजाए, निज नैन से नीर बहाए ।
पुरममता अति ही दुःख लागा, अपने आपको जान अभागा ।
मन मे राजन करे विचार, कर्मन वश पायो दुःख भारा ।
रहे न नौकर आज्ञाकारी, गई राजधानी भी सारी।
विधान्मोहे भओ विपरीत, निष् दिन रहू विपन भेहवीता ।
देव करोगे कबहुँ सुहाही , काटो मोरे विपदा सिर आई ।
सोचत सोच रह्यो भुआला, आयो वैश्य एक्तेही काला ।
तिनराजा को कीं प्रणाम , वैश्य समाधि कह्यो निज नामा ।
दोहा:- राजा कहे समाधि से कारन दो बतलायो ।
दुखी हुए मन मलीन से क्यों इस वन मे आये ।
आह भरी उस वश्य ने बोला हो बेचैन ।
सुमरिन कर निज दुःख का भर आये जलनैन ।
वैश्य कष्ट मन का कह डाला, पुत्रो ने है घर से निकला ।
छीन लियो धन सम्पति मेरी , मोरी जान विपद ने घेरी ।
घर से धक्के खा वन आया, नारी ने भी दगा कमाया ।
सम्बन्धी स्वजन सब त्यागे , दुःख पावेंगे जीव अभागे ।
राम नाम प्रभाव से है सब का कल्याण ।
गुरुदेव के चरणों की रज मस्तक पे लगाऊ ।
शारदा माता की कृपा लेखनी का वर पाऊ ।
नमो नारायण दास जी विप्रन कुल श्रृंगार ।
पूज्य पिता की कृपा से उपजे शुद्ध विचार ।
वन्दु संत समाज को वंदु भगतन भेख ।
जिनकी संगत से हुए उलटे सीधे लेख ।
आदि शक्ति की वंदना करके शीश नवाऊ ।
सप्तशती के पाठ की भाषा सरल बनाऊ ।
क्षमा करे विद्वान सब जान मुझे अनजान ।
चरणों की रज चाहता बालक 'संजय' 'चमन' नादान ।
घर घर दुर्गा पाठ का हो जाए प्रचार ।
आदि शक्ति की भक्ति से होगा बेडा पार ।
कलयुग कपट कियो निज डेरा, कर्मो के वश कष्ट घनेरा ।
चिंता अगन में निस दिन जरही ।
प्रभु का सिमरन कबहू ना करही ।
यह स्तुति लिखी तिनके कारण ।
दुःख नाशक और कष्ट निवारण ।
मारकंडे ऋषि करे बखाना ।
संत सुनाई लावे निज ध्यान ।
स्वोर्चित नामक मन्वन्तर में ।
सुरथ नामी राजा जग भर में ।
राज करत जब पड़ी लड़ाई, युद्ध मे मरी सभी कटकाई ।
राजा प्राण लिए तब भागा , राज कोष परिवार त्यागा ।
सचिवन बांटेयो सभी खजाना, राजन यह मर्म यह बन मे जाना ।
सुनी खबर अति भओ उदासा , राजपाठ से हुआ निराशा ।
भटकत आयो इकबन माहि , मेधा मुनि के आश्रम जाहि ।
मेधा मुनि का आश्रम था कल्याण निवास ।
रहने लगा सुरत वह बन संतन का दस ।
इक दिन आया राजा को अपने राज्य का ध्यान ।
चुपके आश्रम से निकला पह्चा बन मे आन ।
मन में शोक अति पूजाए, निज नैन से नीर बहाए ।
पुरममता अति ही दुःख लागा, अपने आपको जान अभागा ।
मन मे राजन करे विचार, कर्मन वश पायो दुःख भारा ।
रहे न नौकर आज्ञाकारी, गई राजधानी भी सारी।
विधान्मोहे भओ विपरीत, निष् दिन रहू विपन भेहवीता ।
देव करोगे कबहुँ सुहाही , काटो मोरे विपदा सिर आई ।
सोचत सोच रह्यो भुआला, आयो वैश्य एक्तेही काला ।
तिनराजा को कीं प्रणाम , वैश्य समाधि कह्यो निज नामा ।
दोहा:- राजा कहे समाधि से कारन दो बतलायो ।
दुखी हुए मन मलीन से क्यों इस वन मे आये ।
आह भरी उस वश्य ने बोला हो बेचैन ।
सुमरिन कर निज दुःख का भर आये जलनैन ।
वैश्य कष्ट मन का कह डाला, पुत्रो ने है घर से निकला ।
छीन लियो धन सम्पति मेरी , मोरी जान विपद ने घेरी ।
घर से धक्के खा वन आया, नारी ने भी दगा कमाया ।
सम्बन्धी स्वजन सब त्यागे , दुःख पावेंगे जीव अभागे ।
फिर भी मन मे धीर ना आवे, ममतावश हर दम कल्पावे ।
दोहा:-मेरे रिश्तेदारों ने किया नीचो का काम ।
फिर भी उनके बिना ना आये मुझे आराम ।
सुरथ ने कहा मेरा भी ख्याल ऐसा ।
तुम्हारा हुआ माम्तावश हाल जैसा ।
चले दोनों दुखिया मुनि आश्रम आये ।
चरण सर नव कर वचन ये सुनाये ।
ऋषिराज कर कृपा बतलायेगा ।
हमे भेद जीवन का समझाइए गा ।
जिन्होंने हमारा निरादर किया है ।
हमे हर जगह ही बेआदर किया है ।
लिया छीन धन और सर्वस्य है जो ।
किया खाने तक से भी बेबस है जो ।
ये मन फिर भी क्यों उनको अपनाता है ।
उन्ही के लिए क्यों यह घबराता है ।
हमारा यह मोह तो छुड़ा दीजिये गा ।
हमे अपने चरणों मे लगा लीजिये गा ।
बिनती उनकी मान कर , मेधा ऋषि सुजान ।
उनके धीरज के लिए कहे यह आत्म ज्ञान ।
यह मोह ममता अति दुखदाई, सदा रहे जीवो मे समाई ।
पशु पक्षी नर देव गंधर्व , माम्तावश पावे दुःख सर्वा ।
गृह सम्बन्धी पुत्र और नारी, सब ने ममता झूठी डारी ।
यदपि झूठ मगर ना छूटे, इसी के कारन कर्म है फूटे ।
ममता वश चिड़ी चोगा चुगावे, भूखी रहे बच्चो को खिलावे ।
ममता ने बांधे सब प्राणी, ब्राह्मण डोम ये राजा रानी ।
ममता ने जग को बौराया, हर प्राणी का ज्ञान भुलाया ।
ज्ञान बिना हर जीव दुखारी , आये सर पर विपदा भारी ।
तुमको ज्ञान यथार्थ नाही, तभी तो दुःख मानो मनमाही ।
दोहा:- पुत्र करे माँ बाप को लाख बार धिक्कार ।
मात पिता छोड़े नहीं फिर झूठा प्यार ।
योग निंदा इसी को ममता का है नाम ।
जीवो को कर रखा है इसी ने बे आराम ।
भगवान् विष्णु की शक्ति यह, भगतो की खातिर भगति यह ।
महामाया नाम धराया है . भगवती का रूप बनाया है ।
ज्ञानियो के मन को हरती है, प्राणियो को बेबस करती है ।
यह शक्ति मन भरमाती है, यह ममता मे फंसाती है ।
यह जिस पर कृपा करती है, उसके दुखो को हरती है ।
जिसको देती वरदान है यह, उसकी करती कल्याण है यह ।
यही ही विद्या कहलाती है ,अविद्या भी बन जाती है ।
संसार को तारने वाली है ,यह ही दुर्गा महाकाली है ।
सम्पूर्ण जग की मालक है ,यह कुल सृष्टि की पालिक है ।
दोहा:- ऋषि ने पूछा राजा ने कारन तो बतलाओ ।
भगवती की उत्पति का भेद हमें समझाओ ।
मुनि मेधा बोले सुनो ध्यान से ।
मग्न निंदा मे विष्णु भगवान थे ।
थे आराम से शेष शैया पे वो ।
मगन असुर मधु - कैटभ वह प्रगटे दो ।
श्रवण मैल से प्रभु की लेकर जन्म ।
लगे ब्रह्मा जी को वो करने खत्म ।
उन्हें देख ब्रह्मा जी घबरा गए ।
लखी निंद्रा प्रभु की तो चकरा गए ।
तभी मग्न मन ब्रह्मा स्तुति करी ।
की इस योग निंद्रा को त्यागो हरी ।
कहा शक्ति निंद्रा तू बन भगवती ।
तू स्वाहा तू अम्बे तू सुख सम्पति ।
तू सावित्री संध्या विश्व आधार तू ।
है उत्पति पालन व संहार तू ।
तेरी रचना से ही यह संसार है ।
किसी ने ना पाया तेरा पार है ।
गदा शंख चक्र पदम हाथ ले ।
तू भगतो का अपने सदा साथ दे ।
महामाया तब चरण ध्याऊ, तुमरी कृपा अभे पद पाऊ ।
ब्रह्मा विष्णु शिव उपजाए, धारण विविध शरीर कर आये ।
तुमरी स्तुति की ना जाए, कोई ना पार तुम्हारा पाए ।
मधु कैटभ मोहे मारन आये, तुम बिन शक्ति कौन बचाए ।
प्रभु के नेत्र से हट जाओ, शेष शैया से इन्हें जगाओ ।
असुरो पर मोह ममता डालो, शरणागत को देवी बचा लो ।
सुन स्तुति प्रगटी महामाया, प्रभु आँखों से निकली छाया ।
तामसी देवी नाम धराया , ब्रह्मा खातिर प्रभु जगाया ।
दोहा:- योग निंद्रा के हटते ही प्रभु उगाड़े नैन।
दोहा:-मेरे रिश्तेदारों ने किया नीचो का काम ।
फिर भी उनके बिना ना आये मुझे आराम ।
सुरथ ने कहा मेरा भी ख्याल ऐसा ।
तुम्हारा हुआ माम्तावश हाल जैसा ।
चले दोनों दुखिया मुनि आश्रम आये ।
चरण सर नव कर वचन ये सुनाये ।
ऋषिराज कर कृपा बतलायेगा ।
हमे भेद जीवन का समझाइए गा ।
जिन्होंने हमारा निरादर किया है ।
हमे हर जगह ही बेआदर किया है ।
लिया छीन धन और सर्वस्य है जो ।
किया खाने तक से भी बेबस है जो ।
ये मन फिर भी क्यों उनको अपनाता है ।
उन्ही के लिए क्यों यह घबराता है ।
हमारा यह मोह तो छुड़ा दीजिये गा ।
हमे अपने चरणों मे लगा लीजिये गा ।
बिनती उनकी मान कर , मेधा ऋषि सुजान ।
उनके धीरज के लिए कहे यह आत्म ज्ञान ।
यह मोह ममता अति दुखदाई, सदा रहे जीवो मे समाई ।
पशु पक्षी नर देव गंधर्व , माम्तावश पावे दुःख सर्वा ।
गृह सम्बन्धी पुत्र और नारी, सब ने ममता झूठी डारी ।
यदपि झूठ मगर ना छूटे, इसी के कारन कर्म है फूटे ।
ममता वश चिड़ी चोगा चुगावे, भूखी रहे बच्चो को खिलावे ।
ममता ने बांधे सब प्राणी, ब्राह्मण डोम ये राजा रानी ।
ममता ने जग को बौराया, हर प्राणी का ज्ञान भुलाया ।
ज्ञान बिना हर जीव दुखारी , आये सर पर विपदा भारी ।
तुमको ज्ञान यथार्थ नाही, तभी तो दुःख मानो मनमाही ।
दोहा:- पुत्र करे माँ बाप को लाख बार धिक्कार ।
मात पिता छोड़े नहीं फिर झूठा प्यार ।
योग निंदा इसी को ममता का है नाम ।
जीवो को कर रखा है इसी ने बे आराम ।
भगवान् विष्णु की शक्ति यह, भगतो की खातिर भगति यह ।
महामाया नाम धराया है . भगवती का रूप बनाया है ।
ज्ञानियो के मन को हरती है, प्राणियो को बेबस करती है ।
यह शक्ति मन भरमाती है, यह ममता मे फंसाती है ।
यह जिस पर कृपा करती है, उसके दुखो को हरती है ।
जिसको देती वरदान है यह, उसकी करती कल्याण है यह ।
यही ही विद्या कहलाती है ,अविद्या भी बन जाती है ।
संसार को तारने वाली है ,यह ही दुर्गा महाकाली है ।
सम्पूर्ण जग की मालक है ,यह कुल सृष्टि की पालिक है ।
दोहा:- ऋषि ने पूछा राजा ने कारन तो बतलाओ ।
भगवती की उत्पति का भेद हमें समझाओ ।
मुनि मेधा बोले सुनो ध्यान से ।
मग्न निंदा मे विष्णु भगवान थे ।
थे आराम से शेष शैया पे वो ।
मगन असुर मधु - कैटभ वह प्रगटे दो ।
श्रवण मैल से प्रभु की लेकर जन्म ।
लगे ब्रह्मा जी को वो करने खत्म ।
उन्हें देख ब्रह्मा जी घबरा गए ।
लखी निंद्रा प्रभु की तो चकरा गए ।
तभी मग्न मन ब्रह्मा स्तुति करी ।
की इस योग निंद्रा को त्यागो हरी ।
कहा शक्ति निंद्रा तू बन भगवती ।
तू स्वाहा तू अम्बे तू सुख सम्पति ।
तू सावित्री संध्या विश्व आधार तू ।
है उत्पति पालन व संहार तू ।
तेरी रचना से ही यह संसार है ।
किसी ने ना पाया तेरा पार है ।
गदा शंख चक्र पदम हाथ ले ।
तू भगतो का अपने सदा साथ दे ।
महामाया तब चरण ध्याऊ, तुमरी कृपा अभे पद पाऊ ।
ब्रह्मा विष्णु शिव उपजाए, धारण विविध शरीर कर आये ।
तुमरी स्तुति की ना जाए, कोई ना पार तुम्हारा पाए ।
मधु कैटभ मोहे मारन आये, तुम बिन शक्ति कौन बचाए ।
प्रभु के नेत्र से हट जाओ, शेष शैया से इन्हें जगाओ ।
असुरो पर मोह ममता डालो, शरणागत को देवी बचा लो ।
सुन स्तुति प्रगटी महामाया, प्रभु आँखों से निकली छाया ।
तामसी देवी नाम धराया , ब्रह्मा खातिर प्रभु जगाया ।
दोहा:- योग निंद्रा के हटते ही प्रभु उगाड़े नैन।
मधु कैटभ को देखकर बोलो क्रोधित बैन ।
ब्रह्मा मेरा अंश है मार सके ना कोय ।
मुझ से बल अजमाने को लड़ देखो तुम दोए ।
प्रभु गदा लेकर उठे करने दैत्य संघार ।
पराक्रमी योद्धा लादे वर्ष वो पांच हजार।
ब्रह्मा मेरा अंश है मार सके ना कोय ।
मुझ से बल अजमाने को लड़ देखो तुम दोए ।
प्रभु गदा लेकर उठे करने दैत्य संघार ।
पराक्रमी योद्धा लादे वर्ष वो पांच हजार।
तभी देवी महामाया ने दत्यो के मन भरमाये ।
बलवानो के ह्रदय मे दिया अभिमान जगाये ।
अभिमानी कहने लगे सुन विष्णु धर ध्यान ।
युद्ध से हम प्रसन् है मांगो कुछ वरदान ।
प्रभु थे कौतक कर रहे बोले इतना हो ।
मेरे हाथो से मरो वचन मुझे यह दो ।
वचन बध्य वह राक्षस जल को देख अपार ।
काल से बचने के लिए कहते शब्द उच्चार ।
जल ही जल चहुँ और है ब्रह्मा कमल बिराज ।
मारना चाहते हो हमे सो सुनिए महाराज ।
वध कीजिए उस जगह पे जल न जहाँ दिखाये ।
प्रभु ने इतना सुनते ही जांघ पे लिया लिटाये ।
चक्र सुदर्शन से दिए दोनों के सर काट ।
खुले नैन रहे दोनों के देखत प्रभु की बाट ।
ब्रह्मा जी की स्तुति सुन प्रगटी महामाया ।
पाठ पढ़े जो प्रेम से उसकी करे सहाय ।
शक्ति के प्रभाव का पहला यह अध्याय ।
'चमन' पाठ कारण लिखा सहजे शब्द बनाया ।
श्रधा भगति से करो शक्ति का गुणगान ।
ऋद्धि सीधी नव निधि दे करे दाती कल्याण ।
अभिमानी कहने लगे सुन विष्णु धर ध्यान ।
युद्ध से हम प्रसन् है मांगो कुछ वरदान ।
प्रभु थे कौतक कर रहे बोले इतना हो ।
मेरे हाथो से मरो वचन मुझे यह दो ।
वचन बध्य वह राक्षस जल को देख अपार ।
काल से बचने के लिए कहते शब्द उच्चार ।
जल ही जल चहुँ और है ब्रह्मा कमल बिराज ।
मारना चाहते हो हमे सो सुनिए महाराज ।
वध कीजिए उस जगह पे जल न जहाँ दिखाये ।
प्रभु ने इतना सुनते ही जांघ पे लिया लिटाये ।
चक्र सुदर्शन से दिए दोनों के सर काट ।
खुले नैन रहे दोनों के देखत प्रभु की बाट ।
ब्रह्मा जी की स्तुति सुन प्रगटी महामाया ।
पाठ पढ़े जो प्रेम से उसकी करे सहाय ।
शक्ति के प्रभाव का पहला यह अध्याय ।
'चमन' पाठ कारण लिखा सहजे शब्द बनाया ।
श्रधा भगति से करो शक्ति का गुणगान ।
ऋद्धि सीधी नव निधि दे करे दाती कल्याण ।
बोलो जय माता दी।
जय मेरी माँ वैष्णो रानी की।
जय मेरी माँ राज रानी की।
जय जय माँ , मेरी भोली माँ।
जय जय माँ, मेरी प्यारी माँ।
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