Bhagwat Geeta 18 Adhayay
Bhagwat Geeta 18 Adhayay
भावार्थ -: यदि तू ऐसा नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। अगर तू ये भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करेगा।
श्री नारायण जी बोले - हे लक्ष्मी! आठरहवे अध्याय का माहात्म्य सुनो , जैसे सब निदयों में गंगाजी, गौंओ में कपिला, कामधेनु और ऋषिओं में नारद जी श्रेष्ठ है। उसी तरह सब अध्यायों में गीता जी का आठरहवाँ अध्याय श्रेष्ठ है| एक समय सुमेरु पर्वत पर देवलोक इन्द्र अपनी सभा लागय बैठा था, उर्वशी नृत्य करती थी, बड़ी प्रसन्नता में बैठे थे, इतने में एक चतुर्भुज रूप को पाषर्द ले आए, इन्द्र ने सब देवताओं के सामने कहा - तू उठ इसको बैठने दे, यह सुनकर इन्द्र सह न सका। उस तेजस्वी को बैठा दिया इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति जी को पूछा - गुरूजी! तुम त्रिकालदर्शी हो देखो इसने कौन पुण्य किया है , जिस पर यह इन्द्रासन का अधिकारी हुआ है| मेरे जाने इसने तीर्थ, व्रत, यज्ञ ,दान कोई नहीं किया, परमेश्वर तथा ठाकुर मंदिर नहीं बनाया। तालाब नहीं बनाया। सोइ बात बृहस्पति जी ने भगवान से कही तब प्रभु ने बृहस्पति जी से कहा कि इसके मन में भोगों को वासना थी परन्तु यह गीता के आठरहवे अध्याय का पाठ नित्य किया करता था| उससे जब इसने देह छोड़ी तब मैंने आज्ञा करी हे पार्षदों ! तुम इसको पहिले ले जाकर इंद्र लोक में सुख भोगावो जब इसका मनोरथ पूरा हो जाये तब मेरी सहज मुक्ति को पहुचाओं, सो तुम जाकर भोगों की सामग्री इकट्ठी कर देवों तब इन्द्र और सब देवता आए। आकर इन्द्र ने सब भोगों की वस्तु एकत्र कर दी और कहा इन्द्रलोक के सुखों को भोगो। कई काल इन्द्रपुरी के सुख भोगकर फिर भी भगवान की कृपा से सहज मुक्ति पाकर बैकुण्ड का अधिकारी हुआ| श्री नारायणजी कहते - है लक्ष्मी ! यह आठरहवे अध्याय का महात्म्य है| गंगा, गीता, गायंत्री कलयुग में यह तीनो मुक्ति दाता है|
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