Shree Ganesh Chalisa Prarambh
Shree Ganesh Chalisa Prarambh
दोहा -:
जय जय जय वंधन भुवन , नंदन गोरी महेश।
दुःख दवंदवन फंदन हरण , सुन्दर सुवन गणेश।।
भावार्थ -: हे ! शिव पार्वती के सुन्दर लाडले पुत्र तुम्हारी जय हो। दुःख दर्द
हरण करने वाले जगत वंदनीय गणेश जी आपकी जय हो।
जयति शंभु सुत गौरी नंदन।
बिघन हरन नासन भव फंदन।।
भावार्थ -: शिव पार्वती के पुत्र आप हर प्रकार के विघनों को नष्ट तथा बंधन से मुकत करने वाले है।
जय गणनायक जनसुख दायक।
विशव विनायक बुद्धि विधायक।।
भावार्थ -: बुद्धि बढ़ाने वाले और भक्तों के सुखदाता गोरी पुत्र गणपति आपकी जय हो।
एक रदन गज बदन विराजत।
वक्रतुंड शुचि शुंड सुसाजत।।
भावार्थ -: हे ! गज समान मुख वाले गणपति एक दन्त तथा सुँढ़ आपके मुख की पवित्र शोभा हैं।
तिलक त्रिपुण्ड भाल शशि सोहत।
शबि लखि सुरनर मुनि मन मोहत।
भावार्थ -: आपका सोंदरया हर प्राणी को मुग्ध करने वाला तथा मस्तक पर त्रिपुण्ड और चन्दर्मा की शवि है।
उर मणिमाल सरोरुह लोचन।
रतन मुकुट सिर सोच विमोचन।।
भावार्थ -: आप भक्तों की चिंता हरने वाले , कमल नयन , मणिमाला एवं रत्त्नों का मुकुट धारण किए हुए है।
कर कुठार शुचि सुभग त्रिशूलम।
मोदक भोग सुगंदित फुलम।।
भावार्थ -: आपके हाथ में कुठार एवं त्रिशूल सुशोभित हैं। लड्डुओं के भोग एवं सुगन्धित फल आपको प्रिय हैं।
सुन्दर पीताम्बर तन साजि।
चरण पादुका मुनि मन राजित।
भावार्थ -: आपके बदन पर पीले वस्तर शोभित हैं , आपकी चरण पादुका मुनिओं को प्रफुल्लित करती हैं।
धनि शिव सुवन भुवन सुख दाता।
गोरी ललन षडानन भ्राता।।
भावार्थ -: त्रिभुवन को सुखी बनाने वाले, हे शिव के पुत्र , कार्तिकय अनुज भ्राता , गौरी नंदन आप धन्य हैं।
रिद्धि सिद्धि तव चंबर सुढारहिं।
मूषक वाहन सोहित द्वारहिं।।
भावार्थ -: ऋद्धियाँ - सिद्धियां सदैव आपकी सेवा में चंबर डुलाती हैं एवं वाहन मूषक सदा द्वार पर विराजमान रहता है।
तव महिमा को बरने पारा।
जन्म चरित्र विचित्र तुम्हारा।।
भावार्थ -: हे गणपति ! आपकी महिमा अवर्णीय है। आपका जीवन चरित्र अद्भुत एवं चमत्कारी है।
एक असुर शिवरूप बनावे।
गोरहिं शलन हेतु तहं आवै।।
भावार्थ-: हे गौरीनंदन ! एक दैत्य , माँ पार्वती को शलने की गरज से हर रोज़ शिव रूप बना कर आया करता था।
एहि कारण ते श्री शिव प्यारी।
निज तन मेल मूर्ति रचि डारी।।
भावार्थ -: इस कारण माता पार्वती ने अपने शरीर से मेल उतार कर बालक गणेश की रचना की।
सो निज सुत करि गृह रखवारे।
द्वारपाल सम तेहिं बैठारे।।
भावार्थ -: माता पार्वती ने आपको अपना पुत्र घोषित कर घर की रक्षा हेतु प्रहरी नियुक्त कर दवार पर बैठा दिया।
जबहिं सब्यं श्री शिव तहं आए।
बिनु पहिचान जान नहीं पाए।।
भावार्थ -: जब भगवान शिव वहां सवयं पधारे तब उन्हें पहचान न पाने के कारण आपने गृह प्रवेश नहीं करने दिया।
पूछयों शिव हो किनके लाला।
बोलत भे तुम वचन रसाला।।
भावार्थ-: जब शिवजी ने आपसे परिचय पूछा कि तुम किसके पुत्र हो ? तब आपने मधुर वाणी में कहा।
मैं हूँ गौरी सुत सुनि लीजै।
आगे पग न भवन हित दीजै।।
भावार्थ -: धयान से सुनिए - मैं गौरी पुत्र गणेश हूँ। आप कृपा करके घर क़े अंदर जाने का प्रयास न करें।
आवहिं मातु बुझि तब जाओ।
बालक से जनि बात बढ़ाओ।।
भावार्थ -: मैं माँ से पूछ कर आता हूँ ततपशात ही आप अंदर आ सकेंगे। आप बालक जान कर बात न बढ़ाएं।
चलन चाह्वो शिव बचन न मान्यो।
तब ह्वे कुंद युद्ध तुम ठान्यो।।
भावार्थ -: जब शिवजी ने आपकी बात न मानी तब आपने क्रोध में आकर शिवजी को युद्ध हेतु ललकारा।
तत्क्षण नहि कछु
शंभु बिचारियो।
गहि त्रिशूल भूल वश मारयो।।
भावार्थ -: तब शिव जी ने बिना विचार किये तत्काल अपने त्रिशूल से भूलबश आप पर प्रहार किया।
शिरीष फूल सम
सिर कटि गजउ।
शंट उड़ि लोप गगन महं भयउ।।
भावार्थ -: आपका सिर सिरीश पुष्प क़े समान कट कर तुरंत आकाश में उड़ गया और वहीँ गायब हो गया।
गहि त्रिशूल भूल वश मारयो।।
भावार्थ -: तब शिव जी ने बिना विचार किये तत्काल अपने त्रिशूल से भूलबश आप पर प्रहार किया।
शंट उड़ि लोप गगन महं भयउ।।
भावार्थ -: आपका सिर सिरीश पुष्प क़े समान कट कर तुरंत आकाश में उड़ गया और वहीँ गायब हो गया।
गयो शंभु जब
भवन मंझारी।
पूछे शिव निज
मन मुस्काये।
कहउँ सती सुत कहँ ते जाये।
भावार्थ-: शिव जी ने मन - ही - मन मुस्कुराते हुए पूछा - हे सती पार्वती ! तुमने कब अपने पुत्र को जन्म दिया।
खुलिगे भेद कथा
सुनि सारी।
गिरी विकल गिरिराज दुलारी।
भावार्थ -: शिव क़े तर्क - वितर्क से हत्या का भेद खुल गया। जिससे पार्वती विकल हो धरती पर गिर पढ़ी।
कियो न भल सवामी अब जाओ।
लाओ शीश जहां ते पाओ।
भावार्थ-: और पार्वती बोली- हे सवामी ! अपने यह क्या किया ? जैसे भी हो , मेरे पुत्र का सिर ले आएं।
चल्यो विष्णु संग शिव विगियानी।
मिलयो न सो हसितहि सिर आनी।
जहँ बेशी गिरिराज
कुमारी।।
भावार्थ-: जब भगवान शिव अंत : पुर में पहुंचे जहँ गिरिराज सुत्ता माता पार्वती विराजमान थीं।
भावार्थ-: जब भगवान शिव अंत : पुर में पहुंचे जहँ गिरिराज सुत्ता माता पार्वती विराजमान थीं।
कहउँ सती सुत कहँ ते जाये।
भावार्थ-: शिव जी ने मन - ही - मन मुस्कुराते हुए पूछा - हे सती पार्वती ! तुमने कब अपने पुत्र को जन्म दिया।
गिरी विकल गिरिराज दुलारी।
भावार्थ -: शिव क़े तर्क - वितर्क से हत्या का भेद खुल गया। जिससे पार्वती विकल हो धरती पर गिर पढ़ी।
कियो न भल सवामी अब जाओ।
लाओ शीश जहां ते पाओ।
भावार्थ-: और पार्वती बोली- हे सवामी ! अपने यह क्या किया ? जैसे भी हो , मेरे पुत्र का सिर ले आएं।
चल्यो विष्णु संग शिव विगियानी।
मिलयो न सो हसितहि सिर आनी।
भावार्थ -:
सिर प्रापत न
होने पर प्रज्ञान
में निपुण शिवजी
विष्णु जी क़े
साथ जाकर एक
हाथी का सिर
ले आए।
प्राण वाजु संचालन कीन्यौ।
भावार्थ-: इसके बाद
उस सिर को
उन्होंने धड़ क़े
ऊपर लगा कर
अमृत बर्षों कर
प्राण वाजु का
संचार कर दिया।
श्री गणेश तब
नाम धरियो।
विद्या बुद्धि अमर वर पायो।
भावार्थ-: शिवजी ने आपका नाम श्री गणेश रखा और विद्यावान , बुद्धिमान और अमर होने का वरदान दिया।
भे प्रभु प्रथम पूज्य
सुखदायक।
विघन विनाशक बुद्धि विधायक।
भावार्थ -: आप देवों में प्रथम पूज्य हैं। सभी प्राणियों क़े विघनों का विनाश एवं बुद्धि में वृद्धि करने वाले हैं।
प्रथमहि नाम लेत
तव जोई।
जग कहँ सकल काज सिद्ध होये।
विद्या बुद्धि अमर वर पायो।
भावार्थ-: शिवजी ने आपका नाम श्री गणेश रखा और विद्यावान , बुद्धिमान और अमर होने का वरदान दिया।
विघन विनाशक बुद्धि विधायक।
भावार्थ -: आप देवों में प्रथम पूज्य हैं। सभी प्राणियों क़े विघनों का विनाश एवं बुद्धि में वृद्धि करने वाले हैं।
जग कहँ सकल काज सिद्ध होये।
भावार्थ -:
किसी भी कार्य
क़े प्रारम्भ में
आपका नाम लेने
से सभी कार्य
निविर्द्धन सम्पन हो जाते
हैं।
सुमिरहिं तुम्ही मिलहि सुख
नाना।
बिनु तव कृपा न कहूं कलियाणा।
भावार्थ -: आपका सुमिरन करने से सुख प्र्यापत होता हैं। बिना आपकी कृपा द्रिष्टी क़े कल्याण सम्भब नहीं।
तुम्हरिहिं
शाप भयो जग
अंकित।
भादों चौथ चंदर अकलंकित।
भावार्थ -: अपने श्राप से चन्दर्मा कलंकित किया। तबसे भादों की चतुर्थी को चंदरदर्शन नहीं होता।
जबहिं परीक्षा शिव तुहिं लीन्हा।
प्रदक्षिणा पृथ्वी कही दीन्हा।
भावार्थ -: जब भगवान शिव ने आपकी बुद्धि परीक्षा क़े लिए आपको पृथ्वी की परिकर्मा करने को कहा।
षड्मुख चलओ मयूर
उड़ाई।
बैठे रचे तुम सहज उपाई।
भावार्थ -: कार्तिकय मयूर पर परिक्रमा क़े लिए निकल पढ़े। पर अपने बैठे -बैठे ही युक्ति निकल ली।
राम नाम महि
पर लिखी आंका।
कीन्ही पर्दक्षिण तजि मन शंका।
भावार्थ-: आपने पृथ्वी पर राम नाम अंकित कर मन की सभी शंकाओ को दूर कर उसी की प्रदक्षिणा कर डाली।
बिनु तव कृपा न कहूं कलियाणा।
भावार्थ -: आपका सुमिरन करने से सुख प्र्यापत होता हैं। बिना आपकी कृपा द्रिष्टी क़े कल्याण सम्भब नहीं।
भादों चौथ चंदर अकलंकित।
भावार्थ -: अपने श्राप से चन्दर्मा कलंकित किया। तबसे भादों की चतुर्थी को चंदरदर्शन नहीं होता।
जबहिं परीक्षा शिव तुहिं लीन्हा।
प्रदक्षिणा पृथ्वी कही दीन्हा।
भावार्थ -: जब भगवान शिव ने आपकी बुद्धि परीक्षा क़े लिए आपको पृथ्वी की परिकर्मा करने को कहा।
बैठे रचे तुम सहज उपाई।
भावार्थ -: कार्तिकय मयूर पर परिक्रमा क़े लिए निकल पढ़े। पर अपने बैठे -बैठे ही युक्ति निकल ली।
कीन्ही पर्दक्षिण तजि मन शंका।
भावार्थ-: आपने पृथ्वी पर राम नाम अंकित कर मन की सभी शंकाओ को दूर कर उसी की प्रदक्षिणा कर डाली।
श्री पितु मातु
चरण धरि लीन्हों।
ता कहँ सात
पर्दक्षिणा कीन्हों।
भावार्थ -: श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अपने माता - पिता क़े चरण पकड़ उनकी सात परिक्रमाए कर ली।
पृथ्वी परिक्रमा फल पायो।
अस लखि सुरन सुमन बरसायो।
भावार्थ -: इस प्रकार आपको पूरी पृथ्वी की परिक्रमा का फल मिला एवं देवताओं ने पुष्प वर्षा की।
'सुन्दरदास
' राम क़े चेरा।
दुर्वासा आश्रम धरि डेरा।
भावार्थ -: भगवान श्री राम क़े अनय भक्त सुन्दर दास जिनका निवास स्थान ऋषि दुर्वासा का आश्रम था।
विरचयो श्री गणेश
चालीसा।
शिव पुराण वर्णित योगीशा।
भावार्थ -: श्री गणेश चालीसा की रचना उसी प्रकार की , जिस प्रकार शिव पुराण की महान ऋषिओं ने की थी।
नित्य गजानन जो गुण
गावत।
गृह बसि सुमति परम सुख पावत।
भावार्थ -: श्री गणेश जी की जो पूजा - अर्चना करता है , उसके घर बुद्धि एवं सद्भाव की निवास हो जाता है।
जन धन धान्य
सुवन सुखदायक।
देहिं सकल शुभ श्री गणनायक।
भावार्थ -: गणपति की कृपा से सुख - समृद्धि , धन - धान्य , पुत्र - पुत्रादि की प्राप्ति होती है।
श्री गणेश यह
चालीसा , पथ करे
धरि धयान।
नित नव मंगल मोध लहि , मिले जगत सम्मान।
भावार्थ -: जो श्री गणेश चालीसा का नित्य पाठ करता है , वह सुख - समृद्धि प्रसन्ता एवं समान पाता है।
द्वै सहस्त्र दस विक्रमी
, भादर कृष्ण तिथि गंग।
पूरन चालीसा भओ , सुन्दर भक्ति अभंग।
भावार्थ -: भदरपद की कृष्णा तृतीया , वी सं २०१० को यह चालीसा पूर्ण हुआ और सुन्दरदास को भक्ति - सुख मिला।
भावार्थ -: श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अपने माता - पिता क़े चरण पकड़ उनकी सात परिक्रमाए कर ली।
अस लखि सुरन सुमन बरसायो।
भावार्थ -: इस प्रकार आपको पूरी पृथ्वी की परिक्रमा का फल मिला एवं देवताओं ने पुष्प वर्षा की।
दुर्वासा आश्रम धरि डेरा।
भावार्थ -: भगवान श्री राम क़े अनय भक्त सुन्दर दास जिनका निवास स्थान ऋषि दुर्वासा का आश्रम था।
शिव पुराण वर्णित योगीशा।
भावार्थ -: श्री गणेश चालीसा की रचना उसी प्रकार की , जिस प्रकार शिव पुराण की महान ऋषिओं ने की थी।
गृह बसि सुमति परम सुख पावत।
भावार्थ -: श्री गणेश जी की जो पूजा - अर्चना करता है , उसके घर बुद्धि एवं सद्भाव की निवास हो जाता है।
देहिं सकल शुभ श्री गणनायक।
भावार्थ -: गणपति की कृपा से सुख - समृद्धि , धन - धान्य , पुत्र - पुत्रादि की प्राप्ति होती है।
नित नव मंगल मोध लहि , मिले जगत सम्मान।
भावार्थ -: जो श्री गणेश चालीसा का नित्य पाठ करता है , वह सुख - समृद्धि प्रसन्ता एवं समान पाता है।
पूरन चालीसा भओ , सुन्दर भक्ति अभंग।
भावार्थ -: भदरपद की कृष्णा तृतीया , वी सं २०१० को यह चालीसा पूर्ण हुआ और सुन्दरदास को भक्ति - सुख मिला।
आरती श्री गणेश जी की
जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा।।
एक दन्त दयावन्त चार भुजा दारी।
मस्तक सिंधुर सोहे मूसे की सवारी।।
अन्धन को आंख डेट कोढ़िन को काया।
वांझन को पुत्र देते निर्धन को माया।।
हार चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
लड्डूवन का भोग लगे संत करें सेवा।।
दिनन की लाज राखो शम्भु सुत वारी।
कामना को पूर्ण करो जग बलिहारी।।
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